साँझ ढलने को थीं। जाड़ो में दिन छोटे औऱ रात लंबी हो जाती हैं , उतनी ही लंबी जितनी ऑफिस से घर को जाती सड़क। दूधिया स्ट्रीट लाइट से रोशन होता शहर बेहद खूबसूरत लगता हैं। सत्रह किलोमीटर दूरी तय करके घर पहुँचकर ऐसा महसूस होता मानों ऑफिस से नहीं अंतरिक्ष की यात्रा करके लौटी हुँ। घर पहुँचते - पहुँचते रात गहरा जाती। कमरें में पसरा घुप्प अंधेरा ऐसा लगता मानों रात ने मेरे ही घर डेरा डाल रखा हों। मुझें बचपन से ही चांद - तारे बहुत पसंद हैं , इसलिए अपने शहर से रेडियम के चांद - तारे साथ ले आई थीं औऱ छत पर लगीं खूँटी पर कुछ इस तरह लगा दिये थे कि जब भी दरवाजा खोलों तो रोशनी की बूंदो से चमकते सितारे ऑफिस की सारी थकान छूमंतर कर दे। मैं दरवाज़े का ताला खोलकर सबसे पहले कमरे में टँगे टिमटिमाते चांद तारों को देखती फिर चारों ओर फैले अंधेरे को बत्ती जलाकर विदा कर देतीं।
अंधेरे को विदा करना तो बहुत आसान था। एक स्वीच ऑन किया औऱ कमरा रोशनी से सराबोर हो जाता , पर कमरे में छाई तन्हाई को कैसे विदा करतीं..वो तो जैसे परछाई की तरह हमेशा मेरे साथ ही रहतीं। तन्हाई भी बिन बुलाए मेहमान की तरह होतीं हैं, जो जाने का नाम ही नहीं लेती।मैंने बहुत कोशिश की इस दिनों-दिन बढ़ते खालीपन से निपटने की ; किताबें पढी , गीत - गजलें सुनी पर कोई भी तरीका काम नहीं आया। अब तो तन्हा दिल किसी लाईलाज बीमारी की तरह लगने लगा हैं। जो प्राण छूटने पर ही साथ छोड़ेगा।
हमेशा चिडियों की तरह चहकने वाली मैं बातूनी सी लड़की ऐसे चुप हो गई जैसे दर्जी ने होठों को सिल दिया हो। इन सबकी वजह सिर्फ़ मेरा अतीत हैं।
ठंड की रात में सन्नाटा औऱ भी गहरा जाता हैं । सन्नाटे में डूबा घर का कोना-कोना मेरे दिल की बैचेनी ज़ाहिर कर रहा था । मन का खालीपन ऐसा था मानो चन्द्रमा के गहरे गड्ढे हो। मैं खामोशी से खिड़की के काँच से सर टिकाकर बाहर देखने लगीं। मेरे मन की तरह ही शहर की स्थिति थीं , सुनी सड़कें , सड़क के किनारे कतार में चुपचाप खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ औऱ बेतरतीब बिखरी सूखी पत्तियां।
वक़्त गुजर जाता है पर यादें नहीं गुज़रती , कमबख्त यादें मन के किसी कोने में ठहर जाती हैं। मैं यादों के रथ पर सवार हो पहुँच गई थीं अपने सुनहरे अतीत में...
वो बरसात के दिन थे , या यूं कहूं कि मेरे औऱ रघुबीर के इश्क़ के शुरुआती दिन थे । हल्की बूंदाबांदी हो रहीं थीं। मैं आसमान की ओर चेहरा किए हुए आंखे मूंदे बारिश की बौछारो का लुफ़्त ले रहीं थीं। तभी रघुबीर ने छाता मेरी ओर करतें हुए नाराज़ होकर कहा - अब बस भी करो देवी जी ! आज ही अगस्त्यमुनि की तरह सारी बारिश पी लोगी या अन्य जीवों के लिए भी कुछ बूंदे बख्श दोगी..?
चलो भी देखों तो ज़रा घनघोर घटाओं को...अगर तेज़ बारिश हो गई तो घर पहुंचना मुश्किल होगा।
चिंता की लकीरें उसके माथे पर उभर आई ।
मैंने खिलखिलाकर हँसते हुए रघुबीर से कहा - अगर रंग होता तो तुम्हारे माथे पर बनी इन लकीरों को तीन रंगों से रँग देती औऱ बना देतीं - "तिरँगा"
रघुबीर के चेहरे पर गर्व के भाव आ गये , गर्व से उसका सीना फूल गया वो बोला - तिरँगा तो मेरी रग - रग में लहराता हैं।
मैंने रघुबीर के माथे को चूमते हुए कहा - इसीलिए तो तुमसे इतना प्यार करतीं हुँ।
वो गम्भीर होकर बोला - कभी तिरंगे में लिपटा हुआ आऊं तब भी मुझ पर ऐसे ही प्यार लुटाना।
मैंने झट से अपनी उँगली रघुबीर के होंठों पर रखते हुए कहा - ऐसा न कहो , हम हमेशा साथ रहेंगे।
वो हल्का सा मुस्कुरा दिया औऱ अपनी बाहों में भरकर मुझसें बोला - ये हाथ नहीं प्रेम की जंजीरे है जो इतनी आसानी से छूटेगी नहीं।
मैं नखरे दिखाकर झूठमुठ का नाराज होते हुए बोली - "तुम मुझसें इस तरह की बात मत किया करों।"
शेष अगलें भाग में.....